शनिवार, 8 सितंबर 2012

कन्फ्यूज़ हैं अन्ना ?


क्या करें कि ना करे...
भ्रष्टाचार के खिलाफ देश भर को जागरूक करने वाले अन्ना हजारे इन दिनों कन्फ्यूज़ दिख रहे है। लग तो यही रहा है कि अन्ना इस बात का निर्णय नहीं कर पा रहे हैं कि आखिर उन्हें क्या करना है और क्या नहीं करना, और शायद यही वजह है कि वो अपनी बातों पर कायम नहीं रह पाते और अपने सहयोगियों से भी उनका नियंत्रण खोता जा रहा है, और खुद उन्हीं के सहयोगी उन पर भ्रम फैलाने का आरोप लगा रहे हैं, दरअसल ये सारा मसला राजनीतिक पार्टी बनाने से जुड़ा हुआ है, अन्ना खुद राजनीतिक पार्टी नहीं बनाना चाहते, जबकि उन्हीं के सहयोगी राजनीति को ही दूसरा विकल्प मान रहे हैं। अन्ना आंदोलन की शुरूआत इसी से हुई थी कि वो राजनीति के दल दल से अलग रह कर देश को करप्शन फ्री बनाएंगे और आम जनता को उनका हक दिला कर रहेंगे।
राजनीतिक पार्टी बनाना है या नहीं इस मुद्दे पर अन्ना अपने उन्हीं सहयोगियों से लड़ रहे हैं जिनके साथ उन्होंने आंदोलन की शुरूआत की थी, पहले तो सभी अन्ना की अगुवाई में सब कुछ करने को तैयार थे,लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने अन्ना के नेतृत्व से बाहर निकलना शुरू किया और अब वो खुले तौर पर अपनी सोच अन्ना पर थोप रहे हैं, और अन्ना है जो कि ना तो इस पर राजी हो पा रहे हैं और ना ही इनकार कर पा रहे हैं। और यही कारण है कि जब अन्ना रालेगण में अकेले होते हैं तो कुछ और बोलते हैं और जब उनके सहयोगी उनके साथ होते हैं तो वो अपने सहयोगियों की जुबान बोलने लगते हैं। खास तौर से अरविंद केजरीवाल के सामने तो केजरीवाल वाणी ही बोलते हैं।
जंतर-मंतर के मंच से जब अन्ना ने ऐलान किया था कि उनकी टीम देश को राजनैतिक विकल्प देगी तो उस वक्त लगा था कि इस फैसले में अन्ना भी शामिल होंगे, लेकिन जैसे जैसे समय गुजरा असलीयत सामने आने लगी, पहले अन्ना ने तो अपनी टीम भंग की और फिर ये साफ हो गया कि वो राजनैतिक पार्टी बनाने के फैसले में शामिल थे ही नहीं, उन्होंने अपने सहयोगियों को भी मनाने की कोशिश की लेकिन अन्ना को अपनी सेना के सामने हार मानना पड़ा। रालेगण पहुंचने के बाद अन्ना के तेवर थोड़े सख्त हुए और उन्होंने कहा कि वो किसी भी कीमत पर राजनीति में नहीं जाएंगे। खुद अऩ्ना के सहयोगियों ने उनकी बातों को तवज्जो नहीं दिया और फिर जब अन्ना ने नाराजगी जाहिर की तो अरविंद केजरीवाल अन्ना को मनाने रालेगण पहुंच गए। यहां फिर से केजरीवाल के आगे अन्ना नतमस्तक दिखे, केजरीवाल ने पार्टी बनाकर चुनाव लड़ने का एहसास कराया तो अन्ना के विचार बदले औऱ कहा कि वो ना तो चुनाव लड़ेंगे और ना ही प्रचार करेंगे।
भला ऐसा हो सकता है कि अन्ना के सहयोगी पार्टी बनाए और चुनाव प्रचार में वो अन्ना को भुनाने की कोशिश ना करे, राजनीति में तो महात्मा गांधी भी नहीं आए थे, लेकिन सियासी पिच पर उनके नाम पर जम कर बल्लेबाज़ी हो रही है। हालांकि रालेगण पहुंचे अरविंद केजरीवाल भी बैकफुट पर नज़र आए, कि वो पहले जनता से राय लेंगे और फिर चुनाव लड़ना है या नहीं इस पर फैसला करेंगे। केजरीवाल बार-बार ये कहते हैं कि वो ई-मेल, मैसेज के जरिए जनता की राय जानेंगे, तो क्या केजरीवाल साहब यहां ये बताएंगे कि देश में कितने लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं और कितने मोबाइल यूजर्स हैं, जो कि वो देश भर की राय जान लेंगे। अन्ना के सहयोगियों की रैली में तो उनके लोगों का आतंक इतना होता है कि उनके खिलाफ एक शब्द बोलना भी भारी पड़ जाता है और उसे कांग्रेसी करार देकर उसकी पिटाई की जाती है, तो ये कहना भी बेमानी होगी कि केजरीवाल जी रैली कर जनमत जान पाएंगे।
देश को इस वक्त जरूरत है जन जागरण की, ना कि एक और पॉलीटिकल पार्टी की। जब तक जन जागरण नहीं होगा तब तक देश का उद्धार नहीं हो सकता , लिहाजा अन्ना और उनके सहयोगियों को इस बारे में और सोचने की जरूरत है।


शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

कोयले की आंच और हंगामों की बौछार

मानसून सत्र की तेरहवीं
जिस तरह से हंगामों के बीच और बगैर काम काज के मानसून सत्र अनिश्चित काल के लिए स्थगित हुआ है उससे शीतकालीन सत्र भी एक बार फिर से संकट और आशंकाओं के बीच जूझता दिख रहा है। विपक्ष सरकार से बातचीत करने को कतई तैयार नहीं है, ऐसे में ये कयास लगाए जा रहे हैं कि अगर सरकार ने विपक्ष की मांगें नहीं मानी तो एक बार फिर से शीतकालीन सत्र के दौरान संसद में हंगामों का कोहरा छा सकता है।
कोयले की आंच और हंगामों की बौछार, कुछ ऐसा ही बीता संसद का मानसून सत्र, सदन में काम-काज तो ना के बराबर हुआ, लेकिन सांसदों ने कोयला घोटाले की आंच तले मन भर हल्ला काटा और एक दूसरे को नीचा दिखाने में कोई भी कोर-कसर ना छोड़ी। नतीजा ये रहा की सत्ता पक्ष और विपक्ष को अपनी राजनीति चमकाने के पीछे देश हित का तनिक भी ख्याल ना रहा, और जिस सत्र में तीस बिल पास होने थे, वहां सिर्फ 6 बिल पास हुए और कोयला घोटाले की आड़ में देश को 10 करोड़ रुपए की चपत और लग गई, और तेरह दिन का सत्र सरकार और विपक्ष के अड़ियल रुख की भेंट चढ़ गया। लेकिन दोनों ही पक्ष को इससे भी संतोष नहीं है, सरकार बीजेपी पर समय बर्बाद करने का आरोप लगा रही है तो बीजेपी का कहना है कि जब की उनकी तीनों मांगें नहीं मानी जाएगी तब तक वो सरकार से बातचीत नहीं करेंगे, यानी शीतकालीन सत्र में फिर से सदन एक बार फिर हंगामों की रज़ाई ओढ़ सकता है और सांसद को से कंबल ओढ़ कर हीटर सेकने का एक और मौका मिल सकता है।
खैर मौनसून सत्र का जो होना था वो तो हो चुका है। अब आगे की रणनीति पर विचार करने की जरूरत है, लेकिन यहां भी सरकार और विपक्ष एक दूसरे की फूटी आंख नहीं सुहा रहे है। प्रधानमंत्री का कहना है कि विपक्ष को लोकतंत्र में आस्था ही नहीं है और विपक्ष ने सीएजी रिपोर्ट पर चर्चा कराने का मौका भी गंवा दिया। तो दूसरी तरफ बीजेपी कोलगेट की लड़ाई को सड़क पर ले जाने का ऐलान कर चुकी है,यानी विपक्ष जो ससंद में करने में कामयाब नहीं हो पाया उसे वो अब सड़क पर दोहराना चाहता है, यानी साफ है कि विपक्ष को कोयला घोटाले में पीएम के इस्तीफे से कम कुछ भी मंजूर नहीं है।यानी जब सड़क पर आंदोलन होगा तो एक बार फिर से आम जनता को मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। रैली और विरोध प्रदर्शन होंगे तो सड़कें जाम होगीं, भोंपू बजेगा तो शोर गुल होगा यानी राजनीति की आड़ में कानून की मर्यादाएं तोड़ी जाएंगी और कानून के पहरेदार इसे देखते रहेंगे।
दरअसल कोलगेट के रास्ते से सत्ता पक्ष और विपक्ष अपनी-अपनी सियासत चमकाने में लगे हुए हैं। सरकार सदन में चर्चा इसलिए कराना चाहती थी क्योंकि इसमें बीजेपी पर भी कई आरोप लगते और फिर सरकार ताल ठोक कर विपक्ष को आड़े हाथों ले सकती थी, लेकिन विपक्ष यहां एक कदम आगे निकला और अपनी मांगों पर अड़ा रहा। यानी सदन में तू डाल-डाल, मैं पात-पात की कहानी साफ तौर से लिखी जा रही थी, और इसी अड़ियल रवैये की वजह से संसद और देश का कीमती समय बर्बाद हो गया। इस बार प्रत्यक्ष रूप में कोई घोटाला तो सामने नहीं आया लेकिन सदन की कार्यवाही सुचारू रूप से ना चल पाने पर देश के खजाने को 10 करोड़ रुपए का नुकसान जरूर हो गया। विधानसभा और लोकसभा चुनाव पास आ रहे हैं ऐसे में कांग्रेस और बीजेपी जनता के बीच जाकर एक दूसरे की पोल खोलने की कवायद में जुट गए हैं। लेकिन शायद दोनों पार्टियां ये भूल रही हैं कि ये पब्लिक है सब जानती है।
प्रभाकर चंचल