क्या करें कि ना करे... |
भ्रष्टाचार के खिलाफ देश भर को जागरूक करने वाले अन्ना हजारे इन दिनों कन्फ्यूज़ दिख रहे है। लग तो यही रहा है कि अन्ना इस बात का निर्णय नहीं कर पा रहे हैं कि आखिर उन्हें क्या करना है और क्या नहीं करना, और शायद यही वजह है कि वो अपनी बातों पर कायम नहीं रह पाते और अपने सहयोगियों से भी उनका नियंत्रण खोता जा रहा है, और खुद उन्हीं के सहयोगी उन पर भ्रम फैलाने का आरोप लगा रहे हैं, दरअसल ये सारा मसला राजनीतिक पार्टी बनाने से जुड़ा हुआ है, अन्ना खुद राजनीतिक पार्टी नहीं बनाना चाहते, जबकि उन्हीं के सहयोगी राजनीति को ही दूसरा विकल्प मान रहे हैं। अन्ना आंदोलन की शुरूआत इसी से हुई थी कि वो राजनीति के दल दल से अलग रह कर देश को करप्शन फ्री बनाएंगे और आम जनता को उनका हक दिला कर रहेंगे।
राजनीतिक पार्टी बनाना है या नहीं इस मुद्दे पर अन्ना अपने उन्हीं सहयोगियों से लड़ रहे हैं जिनके साथ उन्होंने आंदोलन की शुरूआत की थी, पहले तो सभी अन्ना की अगुवाई में सब कुछ करने को तैयार थे,लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने अन्ना के नेतृत्व से बाहर निकलना शुरू किया और अब वो खुले तौर पर अपनी सोच अन्ना पर थोप रहे हैं, और अन्ना है जो कि ना तो इस पर राजी हो पा रहे हैं और ना ही इनकार कर पा रहे हैं। और यही कारण है कि जब अन्ना रालेगण में अकेले होते हैं तो कुछ और बोलते हैं और जब उनके सहयोगी उनके साथ होते हैं तो वो अपने सहयोगियों की जुबान बोलने लगते हैं। खास तौर से अरविंद केजरीवाल के सामने तो केजरीवाल वाणी ही बोलते हैं।
जंतर-मंतर के मंच से जब अन्ना ने ऐलान किया था कि उनकी टीम देश को राजनैतिक विकल्प देगी तो उस वक्त लगा था कि इस फैसले में अन्ना भी शामिल होंगे, लेकिन जैसे जैसे समय गुजरा असलीयत सामने आने लगी, पहले अन्ना ने तो अपनी टीम भंग की और फिर ये साफ हो गया कि वो राजनैतिक पार्टी बनाने के फैसले में शामिल थे ही नहीं, उन्होंने अपने सहयोगियों को भी मनाने की कोशिश की लेकिन अन्ना को अपनी सेना के सामने हार मानना पड़ा। रालेगण पहुंचने के बाद अन्ना के तेवर थोड़े सख्त हुए और उन्होंने कहा कि वो किसी भी कीमत पर राजनीति में नहीं जाएंगे। खुद अऩ्ना के सहयोगियों ने उनकी बातों को तवज्जो नहीं दिया और फिर जब अन्ना ने नाराजगी जाहिर की तो अरविंद केजरीवाल अन्ना को मनाने रालेगण पहुंच गए। यहां फिर से केजरीवाल के आगे अन्ना नतमस्तक दिखे, केजरीवाल ने पार्टी बनाकर चुनाव लड़ने का एहसास कराया तो अन्ना के विचार बदले औऱ कहा कि वो ना तो चुनाव लड़ेंगे और ना ही प्रचार करेंगे।
भला ऐसा हो सकता है कि अन्ना के सहयोगी पार्टी बनाए और चुनाव प्रचार में वो अन्ना को भुनाने की कोशिश ना करे, राजनीति में तो महात्मा गांधी भी नहीं आए थे, लेकिन सियासी पिच पर उनके नाम पर जम कर बल्लेबाज़ी हो रही है। हालांकि रालेगण पहुंचे अरविंद केजरीवाल भी बैकफुट पर नज़र आए, कि वो पहले जनता से राय लेंगे और फिर चुनाव लड़ना है या नहीं इस पर फैसला करेंगे। केजरीवाल बार-बार ये कहते हैं कि वो ई-मेल, मैसेज के जरिए जनता की राय जानेंगे, तो क्या केजरीवाल साहब यहां ये बताएंगे कि देश में कितने लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं और कितने मोबाइल यूजर्स हैं, जो कि वो देश भर की राय जान लेंगे। अन्ना के सहयोगियों की रैली में तो उनके लोगों का आतंक इतना होता है कि उनके खिलाफ एक शब्द बोलना भी भारी पड़ जाता है और उसे कांग्रेसी करार देकर उसकी पिटाई की जाती है, तो ये कहना भी बेमानी होगी कि केजरीवाल जी रैली कर जनमत जान पाएंगे।
देश को इस वक्त जरूरत है जन जागरण की, ना कि एक और पॉलीटिकल पार्टी की। जब तक जन जागरण नहीं होगा तब तक देश का उद्धार नहीं हो सकता , लिहाजा अन्ना और उनके सहयोगियों को इस बारे में और सोचने की जरूरत है।