गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

हमें कब आएगी शर्म?


दरिंदों से कब मुक्त होगा समाज?
क्या हमारे देश में कानून का डर खत्म हो गया है ? क्या कानून अपनी भूमिका सही तरीके से नहीं निभा पा रहा है, क्या हमारे अंदर की इंसानियत दफ्न हो गई है और क्या आधुनिक समाज का चोला ओढ़े हमारा शरीर, दिमाग और दिल से खोखला होता जा रहा है ? ये सब सवाल इसलिए क्योंकि आज कल जो कुछ भी हो रहा है वो दरिंदगी से कम नहीं है, और ना ही इस वारदात को अंजाम देने वाले लोग इंसान हैं, क्योंकि इंसान समाज को जोड़ता है तोड़ने का काम नहीं करता, वो सिर्फ समाज के बने रीति रिवाजों का पालन करता है, ना कि इसकी परिधि को लांघ कर कालिख पोतने का काम करता है। हमारी सभ्यता और हमारे समाज ने कभी भी हमें किसी को नुकसान पहुंचाना नहीं सिखाया, फिर हम हमेशा ऐसा ही क्यों करते हैं? जब हम किसी की भलाई के बारे में कुछ सोच नहीं सकते तो हमे किसी को नुकसान पहुंचाने का हक़ किसने दिया ?
देश की राजधानी दिल्ली की सड़कों पर एक बार फिर से दरिंदगी का नंगा नाच देखने को मिला, राजधानी की एक व्यस्त सड़क पर एक चलती बस में एक लड़की की इज्जत तार-तार कर दी गई, बस में मौजूद सभी ने लड़की के दोस्त के सामने उसे अपने हवस का शिकार बनाया, और फिर दोनों के कपड़े फाड़ कर उन्हें सड़क के किनारे फेंक दिया, और जब इसकी शिकायत पुलिस के पास पहुंची तो गैंग रेप का मामला सामने आया।

जैसा कि बलात्कार शब्द ही अपने आप में एक क्रूर और मन को झकझोरने वाला और रूह को कंपा देने वाला शब्द है, इसी क्रूरता के साथ दरिंदों ने भी वारदात को अंजाम दिया। इस वारदात में पीड़ित लड़का और लड़की करीब रात के साढ़े नौ बजे फिल्म देख कर लौट रहे थे, और उन्हें द्वारका जाना था,और मुनिरका से ये एक व्हाइट लाइन बस में सवार हो गए, इसके बाद जो कुछ भी हुआ उन दोनों ने इसके बारे में कभी सोचा भी नहीं होगा। बस में सवार होने के कुछ देर बस स्टाफ ने इनके साथ अभद्र व्यवहार शुरू कर दिया, विरोध करने पर लड़के की पिटाई की गई..और उसे लहू लुहान कर दिया और फिर लड़के के हाथ पैर बांध कर वो लड़की को केबिन में ले गए औऱ फिर उसके साथ सामुहिक दुष्कर्म किया। इस बस के शीशे काले थे और उनमें पर्दा भी लगा हुआ था, और पूरी वारदात के दौरान बस के अंदर की लाइट भी बंद थी। इस पूरी वारदात को चलती बस में अंजाम देने के बाद दरिंदे लड़के और लड़की को नंगी अवस्था में सड़क के किनारे फेंक कर फरार हो गए। इन दोनों को जिस अवस्था में बस से फेंका गया उससे इन दिनों को काफी चोटें भी आई है, और लड़की के साथ वो जिस दरिंदगी से पेश आए उसे लड़की की आंत और लोअर एबडोमेन को काफी नुकसान पहुंचा है।

दरिंदे अपना काम पूरा कर फरार हो गया, लेकिन इसके बाद जो कुछ भी हुआ वो भी किसी शर्मनाक स्थिति से कम नहीं था, जाहिर है कि पुलिस मौके पर देर से पहुंची, लेकिन इस दौरान मौजूद किसी भी शख्स ने लड़के और लड़की के तन को ढंकने की कोशिश नहीं की और ना ही किसी पुलिस को सूचित करना ही मुनासिब समझा, इतना ही नहीं जब पुलिस मौके पर पहुंची तब भी किसी ने उन दोनों को उठाने में पुलिस की मदद नहीं की। वारदात के बाद सभी दोषियों को फांसी की सज़ा देने या फिर उन्हें नपुंसक बनाने की मांग कर रहे हैं, जाहिर है उनमे वो लोग भी होंगे जो उस वक्त मौके पर मौजूद होंगे। लेकिन बड़ा सवाल ये है कि उस वक्त वो उनकी मदद के लिए आगे क्यों नहीं आए? ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, हर बार यही देखते को मिलता है कि आरोपी वारदात को अंजाम देकर फरार हो जाता है लेकिन इसके बाद लोग पीड़ित को घूरते हैं बजाय उसकी मदद करने के।

हर बार ऐसा ही होता है कि हम किसी भी बड़े वारदात के लिए पुलिस को जिम्मेदार बताकर अपनी जिम्मेदारियों से बच निकलते हैं, लेकिन इस वारदात के बाद हमारी जो भूमिका होती है उसे भूल जाते हैं और मूक दर्शक बने रहते हैं, यही सोचते हैं कि आखिर ऐसे पचड़े में कौन पड़ेगा? और कभी ये नहीं सोचते हैं कि हमारी सजगता से समाज का भला हो सकता है, या किसी की ज़िंदगी बच सकती है।

हर किसी के जुबान पर सिर्फ यही सवाल है कि इस दौरान बस ना जाने कितने ट्रैफिक सिग्नल और कितने ही बैरिकेडिंग से होकर गुजरी होगी, लेकिन पुलिस का इस पर ध्यान क्यों नहीं गया? इस वारदात के बाद हर कोई दिल्ली पुलिस की आलोचना ही कर रहा है, लेकिन ये नहीं सोच रहा कि जिस रोड पर चलती बस में ये क्रूर हादसा हुआ उस वक्त सैकड़ों गाड़ियां भी उस बस की बगल की गुजरी होंगी, सैकड़ों लोग पैदल भी चल रहे होंगे लेकिन उनका ध्यान भी उस ओर नहीं गया।
ऐसे सवाल खड़े कर के हर पुलिस की उनकी गलतियों का एहसास तो करा सकते हैं, लेकिन जिम्मेदारियों से भाग नहीं सकते, अगर हम हमारे समाज को सुरक्षित देखना चाहते हैं तो हमें जागना होगा और पुलिस के लिए आंख, कान और नाक बनना होगा. तभी हम पुलिस का साथ देकर ऐसे दरिंदों को समाज को बचा सकते हैं
                                                      (प्रभाकर चंचल)


शनिवार, 27 अक्तूबर 2012

चुनावों के लिए फेरबदल

लोकसभा चुनाव के पहले मनमोहन सरकार के पास अपनी छवि सुधारने का ये आखिरी मौका है...और इस बार अपनी टीम में फेरबदल कर उन चेहरों को भी लाने की कोशिश में जुटे हुए हैं जो कि पार्टी को चुनवों में फायदा पहुंचा सकते हैं...यानी ये साफ है कि मंत्रिमंडल में होने वाला ये फेरबदल चुनाव की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए किया जा रहा है...यूपीए की मौजूदा सरकार मे कुछ मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के छींटे है...तो कुछ पूर्व मंत्री आरोपों में फंस कर जेल की सज़ा भी काट चुके हैं....और अब तो सरकार के मुखिया प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर भी घोटालों के दाग लग चुके हैं...जिससे पूरी की पूरी यूपीए सरकार इस वक्त कटघरे में खड़ी है....और इस लिहाज से भी चुनाव के फाइनल मे पहले टीम मनमोहन का बदला जाना जरूरी लग रहा था...और यही वजह है कि समय रहते और जनता के बीच में जाने से पहले सरकार लोगों को ये संदेश देना चाहती है कि वो साख को लेकर सजग है...ऐसा नहीं है कि ये फेरबदल अचनाक हो रहा है....यूपीए नेताओं की हुई कई दौर की बैठकों के बाद सरकार इस निर्णायक मो पर पहुंची है....यूपीए टू के कार्यकाल में कॉमनवेल्थ घोटाला, टू-जी घोटाला, कोयला घोटाला जैसे बड़े भ्रष्टाचार के मामले सामने आ चुके हैं...और इससे देश के खजाने को अरबों रुपए की चपत लग चुकी है....और दूसरी तरफ से लगातार बढ़ रही महंगाई भी आम जनता को खाए जा रही है....ऐसे में सरकार उन चेहरों को आगे करना चाहती है..जिनकी छवि साफ है...और इस बहाने सरकार बार-बार कड़े तेवर अपनाने वाले विपक्ष को भी शांत करने की कोशिश भी कर रही है...इस फेरबदल में दक्षिण पर खास ध्यान है..जिससे की चुनावों के समय नाराज़ डीएमके की भरपाई हो सके...तो बंगाल में भी नेतृत्व को मजबूत करने के लिए वहां के सांसदों को कैबिनेट में शामिल किया जा रहा है..तो दूसरी तरफ युवा शक्ति को ध्यान में रखते हुए राहुल गांधी के चहेतों सचिन पायलट, मिलिंद देवड़ा औऱ ज्योतिरादित्य सिंधिया का भी प्रमोशन किया जा रहा है...लिहाजा ये साफ है कि इस फेरबदल के जरिए सरकार हर वर्ग को लुभाने की कोशिश कर रही है...लेकिन देखना ये होगा की कैबनेट में चेहरों को बदलने से सरकार की सीरत बदलेगी और क्या युवाओं को शामिल करने से भ्रष्टाचार में बुरी तरफ फंसी हुई सरकार को उबरने की शक्ति मिलेगी ?...

शनिवार, 20 अक्तूबर 2012

ब्लैक होल


देश के लिए ब्लैक होल है
आज की ये राजनीति
जहां सब कुछ बदल जाता है
बुराई अच्छाई में, गद्दारी वफादारी में
उजाला अंधेरा में, अनपढ़ विद्वान
कांटे फूल में, गद्दारी इमानदारी में
इन रास्तों में उलझ जाता है आदमी
रास्ता खोजते खोजते चकरा कर
गिर पड़ता, लेकिन होश में आने
खुद को पाता है उसी ब्लैक होल में
जहां सब कुछ हजम हो जाता है
और धीरे-धीरे वो भी हजम हो जाता है
इस अथाह ब्लैक होल में

शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2012

रेप स्टेट हरियाणा!

रेप स्टेट हरियाणा

एक महीने में 17 बलात्कार, ये तस्वीर उस भारत देश की है जहां नारियों की पूजा की जाती है, जहां समाज में नारियों का खासा स्थान मिला हुआ है। हमारे देश में नारियों को दुर्गा, काली, लक्ष्मी और सरस्वती के रूप में पूजा जाता है, और कितने इत्तेफाक की बात है कि कुछ दिनों बाद नवरात्र शुरू हो रहे हैं जब देश भर में मां दुर्गा की पूजा की जाएगी, फिर दीवाली का त्योहार आएगा जब लक्ष्मी का पूजन होगा फिर काली पूजा और फिर बसंत में सरस्वती की पूजा की जाएगी, और ये दुष्कर्म भी इन्हीं दिनों के पास हो रहे हैं। एक तरफ जहां ये दुष्कर्म हमारे समाज पर सवालिया निशान लग रहे हैं, तो दूसरी तरफ ये दिनों दिन मानव की गिरती मानसिकता का भी परिचायक हैं।
हरियाणा की पहचान जहां खेल राज्य के रूप में होती थी और इसे मेडलों का खजाना कहा जाता था, वहीं अब एक महीने में इसकी पहचान बदल गई है, हरियाणा को अब रेप स्टेट के नाम से जाना जाने लगा है, और ये मुख्यमंत्री हुड्डा की साख लगा बड़ा दाग साबित हो सकता है,खिलाड़ियों के मेडल जीतने पर ईनामों की बरसात करने वाले हुड्डा अब तक रेप की वारदातों पर काबू पाने अक्षम रहे हैं। मुख्यमंत्री साहब ने राज्य का कैप्टन होने के नाते महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने की बात जरूर कही, लेकिन तब तक रेल गाड़ी प्लेटफॉर्म छोड़ काफी आगे निकल चुकी थी।

हरियाणा में कांग्रेस पार्टी की सरकार है और राज्य के बलात्कारी जिस्म पर सबसे पहले नमक भी कांग्रेस पार्टी ने ही छिड़का, इसकी शुरूआत की कांग्रेस की माननीय सोनिया गांधी जी ने, सोनिया गांधी बलात्कार पीड़ित परिवार से मिलने नरवाना गई थी, वहां उन्हें मुख्यमंत्री की क्लास लगानी चाहिए थी, प्रशासन को पुख्ता करने के निर्देश देने चाहिए थे, लेकिन पीड़ित परिवार से मिलने गई सोनिया को शायद इसका एहसास ही नहीं रहा कि आखिर पीड़ितों का दर्द कैसा होता है, वो सबके सामने मुख्यमंत्री हुड्डा का बचाव करती दिखीं और कह दिया की बलात्कार सिर्फ हरियाणा में ही नहीं देश में हर जगह हो रहे हैं। माना जाता है कि जब कभी भी सोनिया सामने आती हैं तो कड़े तेवर में होती हैं, यहां भी ऐसा ही हुआ, लेकिन अपनी सरकार के बचाव के लिए
सोनिया ने जो किया सो किया, राज्य के जख्मी शरीर पर दूसरा तीर दागा हरियाणा कांग्रेस के नेता धर्मवीर गोयत ने, गोयत साहब ने तो बलात्कार पर ही सवाल खड़े किए, और कहा कि यहां बलात्कार नहीं, आपसी सहमति से सेक्स होता है, और 90 फीसदी लोगों को ये बाद में एहसास होता है कि उनके साथ बलात्कार हुआ है।
बयानों का ये करवां आगे भी बढ़ा, फिर एक सज्जन ने ये कह डाला कि हरियाणा में हो रहे बलात्कार सरकार के खिलाफ साजिश है, अरे साहब आप ये क्यों नहीं सोंच पा रहे कि सरकार के खिलाफ साजिश रचने के लिए कोई भी अपने घर की इज्जत को नीलाम क्यों करेगा? हरियाणा सरकार की ये बातें इस बात का एहसास कराने के लिए काफी है यहां महिलाओं के साथ हुए बलात्कार के साथ-साथ सरकार और नेताओं की मानसिकता का भी बलात्कार हो गया है, और अगर ऐसा ही बना रहा तो वो दिन दूर नहीं जब मंत्री और नेता बयान देते रहेंगे, और चारों तरफ अराजकता पैर पसारती रहेगी।
एक तरफ जहां हरियाणा का जख्म गहरा होता जा रहा है, तो वहीं रेप का उम्र कनेक्शन तलाशने की भी कोशिश की गई और ये कहा कि अगर लड़कियों की शादी 15 साल की उम्र में कर दी जाए तो ऐसे वारदातों पर लगाम लगाई जा सकती है, लेकिन दरींदों ने इसे भी नाकाफी करार दिया, कुछ दिन बाद ही गुड़गांव में 6 साल की मासूम के साथ रेप किया गया, तो सिरसा में तीस साल की महिला के साथ। ऐसे में खापों की इस दलील के सामने ये सवाल खड़ा होता है कि क्या बलात्कारी उम्र देख कर बलात्कार करते हैं? अगर ऐसा नहीं है तो इसकी सज़ा उन्हें क्यों दी जाए जो कि पीड़ित है, उन्हें क्यों नहीं ढूंढा जाता जो दोषी है। ऐसा तो है नहीं कि बलात्कारी एलियन होते है जो कि दुष्कर्म करने आए और भी अपने यान से दूसरे ग्रह पर चले गए। वो भी हमारे ही बीच के हैं, और कोई ना कोई तो इस बारे जरूर जानता होगा कि आखिर उनके बीच वो दरिंदा कौन है, तो फिर उस पर कार्रवाई क्यों नहीं होती, इसकी सज़ा उसे क्यों नहीं मिलती, सभी फतवे महिलाओं के लिए ही क्यों जारी होते हैं?
(प्रभाकर चंचल)

शनिवार, 8 सितंबर 2012

कन्फ्यूज़ हैं अन्ना ?


क्या करें कि ना करे...
भ्रष्टाचार के खिलाफ देश भर को जागरूक करने वाले अन्ना हजारे इन दिनों कन्फ्यूज़ दिख रहे है। लग तो यही रहा है कि अन्ना इस बात का निर्णय नहीं कर पा रहे हैं कि आखिर उन्हें क्या करना है और क्या नहीं करना, और शायद यही वजह है कि वो अपनी बातों पर कायम नहीं रह पाते और अपने सहयोगियों से भी उनका नियंत्रण खोता जा रहा है, और खुद उन्हीं के सहयोगी उन पर भ्रम फैलाने का आरोप लगा रहे हैं, दरअसल ये सारा मसला राजनीतिक पार्टी बनाने से जुड़ा हुआ है, अन्ना खुद राजनीतिक पार्टी नहीं बनाना चाहते, जबकि उन्हीं के सहयोगी राजनीति को ही दूसरा विकल्प मान रहे हैं। अन्ना आंदोलन की शुरूआत इसी से हुई थी कि वो राजनीति के दल दल से अलग रह कर देश को करप्शन फ्री बनाएंगे और आम जनता को उनका हक दिला कर रहेंगे।
राजनीतिक पार्टी बनाना है या नहीं इस मुद्दे पर अन्ना अपने उन्हीं सहयोगियों से लड़ रहे हैं जिनके साथ उन्होंने आंदोलन की शुरूआत की थी, पहले तो सभी अन्ना की अगुवाई में सब कुछ करने को तैयार थे,लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने अन्ना के नेतृत्व से बाहर निकलना शुरू किया और अब वो खुले तौर पर अपनी सोच अन्ना पर थोप रहे हैं, और अन्ना है जो कि ना तो इस पर राजी हो पा रहे हैं और ना ही इनकार कर पा रहे हैं। और यही कारण है कि जब अन्ना रालेगण में अकेले होते हैं तो कुछ और बोलते हैं और जब उनके सहयोगी उनके साथ होते हैं तो वो अपने सहयोगियों की जुबान बोलने लगते हैं। खास तौर से अरविंद केजरीवाल के सामने तो केजरीवाल वाणी ही बोलते हैं।
जंतर-मंतर के मंच से जब अन्ना ने ऐलान किया था कि उनकी टीम देश को राजनैतिक विकल्प देगी तो उस वक्त लगा था कि इस फैसले में अन्ना भी शामिल होंगे, लेकिन जैसे जैसे समय गुजरा असलीयत सामने आने लगी, पहले अन्ना ने तो अपनी टीम भंग की और फिर ये साफ हो गया कि वो राजनैतिक पार्टी बनाने के फैसले में शामिल थे ही नहीं, उन्होंने अपने सहयोगियों को भी मनाने की कोशिश की लेकिन अन्ना को अपनी सेना के सामने हार मानना पड़ा। रालेगण पहुंचने के बाद अन्ना के तेवर थोड़े सख्त हुए और उन्होंने कहा कि वो किसी भी कीमत पर राजनीति में नहीं जाएंगे। खुद अऩ्ना के सहयोगियों ने उनकी बातों को तवज्जो नहीं दिया और फिर जब अन्ना ने नाराजगी जाहिर की तो अरविंद केजरीवाल अन्ना को मनाने रालेगण पहुंच गए। यहां फिर से केजरीवाल के आगे अन्ना नतमस्तक दिखे, केजरीवाल ने पार्टी बनाकर चुनाव लड़ने का एहसास कराया तो अन्ना के विचार बदले औऱ कहा कि वो ना तो चुनाव लड़ेंगे और ना ही प्रचार करेंगे।
भला ऐसा हो सकता है कि अन्ना के सहयोगी पार्टी बनाए और चुनाव प्रचार में वो अन्ना को भुनाने की कोशिश ना करे, राजनीति में तो महात्मा गांधी भी नहीं आए थे, लेकिन सियासी पिच पर उनके नाम पर जम कर बल्लेबाज़ी हो रही है। हालांकि रालेगण पहुंचे अरविंद केजरीवाल भी बैकफुट पर नज़र आए, कि वो पहले जनता से राय लेंगे और फिर चुनाव लड़ना है या नहीं इस पर फैसला करेंगे। केजरीवाल बार-बार ये कहते हैं कि वो ई-मेल, मैसेज के जरिए जनता की राय जानेंगे, तो क्या केजरीवाल साहब यहां ये बताएंगे कि देश में कितने लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं और कितने मोबाइल यूजर्स हैं, जो कि वो देश भर की राय जान लेंगे। अन्ना के सहयोगियों की रैली में तो उनके लोगों का आतंक इतना होता है कि उनके खिलाफ एक शब्द बोलना भी भारी पड़ जाता है और उसे कांग्रेसी करार देकर उसकी पिटाई की जाती है, तो ये कहना भी बेमानी होगी कि केजरीवाल जी रैली कर जनमत जान पाएंगे।
देश को इस वक्त जरूरत है जन जागरण की, ना कि एक और पॉलीटिकल पार्टी की। जब तक जन जागरण नहीं होगा तब तक देश का उद्धार नहीं हो सकता , लिहाजा अन्ना और उनके सहयोगियों को इस बारे में और सोचने की जरूरत है।


शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

कोयले की आंच और हंगामों की बौछार

मानसून सत्र की तेरहवीं
जिस तरह से हंगामों के बीच और बगैर काम काज के मानसून सत्र अनिश्चित काल के लिए स्थगित हुआ है उससे शीतकालीन सत्र भी एक बार फिर से संकट और आशंकाओं के बीच जूझता दिख रहा है। विपक्ष सरकार से बातचीत करने को कतई तैयार नहीं है, ऐसे में ये कयास लगाए जा रहे हैं कि अगर सरकार ने विपक्ष की मांगें नहीं मानी तो एक बार फिर से शीतकालीन सत्र के दौरान संसद में हंगामों का कोहरा छा सकता है।
कोयले की आंच और हंगामों की बौछार, कुछ ऐसा ही बीता संसद का मानसून सत्र, सदन में काम-काज तो ना के बराबर हुआ, लेकिन सांसदों ने कोयला घोटाले की आंच तले मन भर हल्ला काटा और एक दूसरे को नीचा दिखाने में कोई भी कोर-कसर ना छोड़ी। नतीजा ये रहा की सत्ता पक्ष और विपक्ष को अपनी राजनीति चमकाने के पीछे देश हित का तनिक भी ख्याल ना रहा, और जिस सत्र में तीस बिल पास होने थे, वहां सिर्फ 6 बिल पास हुए और कोयला घोटाले की आड़ में देश को 10 करोड़ रुपए की चपत और लग गई, और तेरह दिन का सत्र सरकार और विपक्ष के अड़ियल रुख की भेंट चढ़ गया। लेकिन दोनों ही पक्ष को इससे भी संतोष नहीं है, सरकार बीजेपी पर समय बर्बाद करने का आरोप लगा रही है तो बीजेपी का कहना है कि जब की उनकी तीनों मांगें नहीं मानी जाएगी तब तक वो सरकार से बातचीत नहीं करेंगे, यानी शीतकालीन सत्र में फिर से सदन एक बार फिर हंगामों की रज़ाई ओढ़ सकता है और सांसद को से कंबल ओढ़ कर हीटर सेकने का एक और मौका मिल सकता है।
खैर मौनसून सत्र का जो होना था वो तो हो चुका है। अब आगे की रणनीति पर विचार करने की जरूरत है, लेकिन यहां भी सरकार और विपक्ष एक दूसरे की फूटी आंख नहीं सुहा रहे है। प्रधानमंत्री का कहना है कि विपक्ष को लोकतंत्र में आस्था ही नहीं है और विपक्ष ने सीएजी रिपोर्ट पर चर्चा कराने का मौका भी गंवा दिया। तो दूसरी तरफ बीजेपी कोलगेट की लड़ाई को सड़क पर ले जाने का ऐलान कर चुकी है,यानी विपक्ष जो ससंद में करने में कामयाब नहीं हो पाया उसे वो अब सड़क पर दोहराना चाहता है, यानी साफ है कि विपक्ष को कोयला घोटाले में पीएम के इस्तीफे से कम कुछ भी मंजूर नहीं है।यानी जब सड़क पर आंदोलन होगा तो एक बार फिर से आम जनता को मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। रैली और विरोध प्रदर्शन होंगे तो सड़कें जाम होगीं, भोंपू बजेगा तो शोर गुल होगा यानी राजनीति की आड़ में कानून की मर्यादाएं तोड़ी जाएंगी और कानून के पहरेदार इसे देखते रहेंगे।
दरअसल कोलगेट के रास्ते से सत्ता पक्ष और विपक्ष अपनी-अपनी सियासत चमकाने में लगे हुए हैं। सरकार सदन में चर्चा इसलिए कराना चाहती थी क्योंकि इसमें बीजेपी पर भी कई आरोप लगते और फिर सरकार ताल ठोक कर विपक्ष को आड़े हाथों ले सकती थी, लेकिन विपक्ष यहां एक कदम आगे निकला और अपनी मांगों पर अड़ा रहा। यानी सदन में तू डाल-डाल, मैं पात-पात की कहानी साफ तौर से लिखी जा रही थी, और इसी अड़ियल रवैये की वजह से संसद और देश का कीमती समय बर्बाद हो गया। इस बार प्रत्यक्ष रूप में कोई घोटाला तो सामने नहीं आया लेकिन सदन की कार्यवाही सुचारू रूप से ना चल पाने पर देश के खजाने को 10 करोड़ रुपए का नुकसान जरूर हो गया। विधानसभा और लोकसभा चुनाव पास आ रहे हैं ऐसे में कांग्रेस और बीजेपी जनता के बीच जाकर एक दूसरे की पोल खोलने की कवायद में जुट गए हैं। लेकिन शायद दोनों पार्टियां ये भूल रही हैं कि ये पब्लिक है सब जानती है।
प्रभाकर चंचल

रविवार, 26 अगस्त 2012

घोटालों पर सियासत, जिम्मेदार कौन?


घोटालों पर सियासत, जिम्मेदार कौन?
देश में आज कल हर जगह सिर्फ घोटालों की चर्चा हो रही है, और केंद्र की यूपीए सरकार कुछ महीनों बाद ही एक नए घोटाले से घिर जाती है। अगर हाल फिलहाल की बात करें तो इस सरकार ने घोटालों की एक लंबी पारी खेली है, जिसमें मनरेगा घोटाला, कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला, टू-जी स्पकेट्रम घोटाला और अब सामने आया है कोल ब्लॉक आवंटन का घोटाला, ये उन घोटालों की लिस्ट है जो पिछले कुछ समय से सरकार के लिए सिरदर्द और विपक्ष के लिए राजनीति का अखाड़ा बनी हुई है । इन सभी घोटालों का खुलासा किया है संवैधानिक संस्था सीएजी ने। सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में सरकार के तमाम प्रोजेक्ट्स की पोल खोल कर रख दी है।
 कैग ने जब से कोयला घोटाले की पोल खोली है, तब ये संस्था सीधे तौर पर सरकार के निशाने पर आ गई है, सरकार का साफ-साफ कहना है कि इस संस्था की रिपोर्ट में कोई पारदर्शिता है ही नहीं, और कांग्रेस पार्टी की तरफ से तो यहां तक बयान आया कि सीएजी को एक्स्ट्रा जीरो लगाने की आदत पड़ गई है। ऐसा नहीं है कि कैग ने घोटालों पर पहली बार रिपोर्ट पेश की हो, और ऐसा भी बिल्कुल नहीं है कि अपने राज खुलने पर ये संवैधानिक संस्था पहली बार सरकार के निशाने पर हो। ऐसे में सवाल ये है कि जब सरकार को कैग की रिपोर्ट खारिज ही करनी है, और इस पर सवाल ही खड़े करने हैं तो इस संवैधानिक संस्था की जरूरत ही क्या है? और इस संस्था पर लाखों रुपए खर्च क्यों किए जा रहे हैं?
ऐसा नहीं है कि इन घोटालों के लिए सीधे तौर पर वर्तमान की केंद्र सरकार ही जिम्मेदार है, इसके पहले की सराकरें भी इसमें बराबर की भागीदार रही हैं। जब कोई भी घोटाला होता है तो सरकार कहती है कि उसने पहले की सरकार ने जो नियम बनाए थे उसी का पालन किया है, जबकि वो पार्टी ऐसा मानने से इनकार कर देती है। टू-जी स्पेक्ट्रम और कोयला घोटाले में भी सरकार की तरफ से यही दलील पेश की गई, और कहा गया कि उन्होंने एनडीए के कार्यकाल में बने नियमों के मुताबिक ही काम किया है। जबकि एनडीए इन आरोपों को एक सिरे से खारिज करता रहा है।
कोयला घोटाले पर कैग रिपोर्ट आने के बाद से संसद ठप है, लेकिन इस मुद्दे पर सदन के बाहर बयानबाज़ी जारी है, विपक्ष का इस पर सियासत करने में जुटा है, तो सरकार के सामने सवाल अपनी साख बचाने की है। विपक्ष के तेवर से साफ है कि वो इसे चुनावी मुद्दा जरूर बनाएगा। इस साल के अंत में गुजरात विधानसभा चुनाव होने हैं, फिर हिमाचल और सबसे बड़ा समर तो 2014 के लोकसभा चुनावों में होगा, ऐसे में इस पर सियासत खूब हो रही है, जाहिर है कि फिलहाल विपक्ष के पास कोई बड़ा मुद्दा नहीं है, और वो सीएजी रिपोर्ट को ही अपनी सियासत का ट्रैक बना कर दौड़ लगा रहा है। लेकिन इन सबके बीच में समय संसद और देश का बर्बाद हो रहा है, आखिर इसकी तरफ किसी भी पार्टी का ध्यान क्यों नहीं जा रहा है? जो पार्टियां घोटालों पर सरकार को घेरने में लगी रहती है, वो संसद ना चलने का विरोध क्यों नहीं करतीं ? हाल ही में राज्यसभा में नेता विपक्ष अरुण जेटली का बयान आया था कि कभी-कभी संसद ना चलने देना भी अच्छा होता है। माना की सरकार पर दबाव बनाने के लिए विपक्ष का हंगमा जरूरी है, लेकिन जब सरकार सदन में चर्चा को तैयार है तो, उसे एक मौका तो देना ही चाहिए, नहीं तो एक घोटाला जो की हो चुका है, देश को अरबों रुपए का चूना लग चुका है, और अब सत्ता पक्ष और विपक्ष अपनी सियायसत को चमकाने के लिए संसद का कीमती वक्त बर्बाद कर रहे हैं, वो भी उस संसद में जहां देश की भावी योजनाएं बनती है।       
(प्रभाकर चंचल)






बुधवार, 15 अगस्त 2012

ये कैसी आज़ादी


आजाद भारत 65 साल का हो गया है, और इसका जश्न भी खूब धूम-धाम से मानया जा रहा है। हर कोई कह रहा है कि हमें अपनी आजादी पर फ़क्र है और हम इसे किसी भी कीमत पर खोने नहीं देंगे। आखिर हमें स्कूल से यही तो सिखाया गया है कि हमारी आजादी हमें बेहद प्यारी है, और जान से भी ज्यादा प्यारी है, हमने महापुरुषों के संदेश में भी यही पढ़ा है।
लेकिन सवाल ये है कि क्या आज 65 साल की आजादी सचमुच में हमें अपने स्वाधीनता पर फक्र करने का अवसर देती है? क्या हमारी सरकार से हमें वो सभी जरूरी चीजें मिल रही हैं, जिसकी हमें वास्तव मे दरकार है? क्या हमें इस आज़ाद देश में आज़ादी से जीने के अवसर मिल रहे हैं है? इतना कुछ सोचने बाद जवाब होगा नहीं, क्योंकि हमें अपने इस आजाद देश में वो सभी जरूरी चीजें नहीं मिल रही, जिसकी हमें आवश्यक्ता है। आज कस्बा गांव की ओर पलायन कर रहा है, गांव शहर की ओर, शहर महानगर की और महानगर विदेशों की ओर पलायन कर रहा है, ये सभी अपनी रोजमर्रा की जरूरतें और पेट भरने के लिए ऐसा करने को मजबूर हैं, वो दस फीसदी लोग ही होंगे जो अपने व्यापार को बढ़ाने और शौक के लिए विदेशों में सैर करने जाते होंगे। अगर ये सच्चाई हमारे सामने है तो हम अपनी आजादी पर गर्व कैसे कर सकते हैं? हमारी सरकार को ये पता है कि उसकी हर प्लानिंग धीरे-धीरे फेल हो रही है, और फिर भी विद्रोह करने पर सरकार कहती है उसे लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता हासिल है।
हमारे देश की आधी से ज्यादा आबादी भूखे पेट रात गुजारने को मजबूर है, लाखों लोग तो आधा पेट ही भोजन कर पाते हैं। इस आजादी पे तरस उस वक्त आती है जब एक मासूम अपना और अपने परिवार का पेट भरने के लिए रेड लाइट पर तिरंगा बेचता नज़र आता है, एक मां अपने गोद में बच्चा और एक हाथ में तिरंगा लिए लोगों से ये गुहार करती है कि वो उसका तिरंगा खरीद ले, जब बच्चे रेडलाइट पर अपने करतब दिखा कर लोगों से पेट भरने के लिए पैसे मांगते हैं। इतना ही नहीं, आजादी पर चिढ़ उस वक्त होती है जब एक सामान बेचने वाली युवती लोगों से कुछ सामान खरीदने की गुहार करती है औऱ मनचले उसे छेड़ते हैं और उसकी तरफ वासना भरी नज़रों से देखते है।
जब हमारे देश में रहने वालों की यही मानसिकता है तो आप सोचिए कि आखिर ये आजादी हमारे लिए किस काम की है। आजादी के योद्धाओं ने तो देश को अंग्रेजों से मुक्त कराने के लिए अपने जान की बाजी लगा दी, लेकिन लोगों और सरकार की इस कुंठित मानसिकता से हमें कौन आजादी दिलाएगा? और कब हमारी आजादी सही मयाने में पूरी हो पाएगी, और कब हमारे देश में समाज का हर तबका चैन की सांस ले सकेगा? आखिर हमें ये पूर्ण आजादी कब मिलेगी?
हमारे देश में सरकार और नेताओं को वोट बैंक की राजनीति करने से फुरसत नहीं है, बाकी बचा समय वो दौरों में निकाल देते हैं, जनता अपने स्वार्थ के पीछे भाग रही है..तो ऐसे में इस देश की सुध लेने वाला कोई नहीं है, देश हित के लिए हाल ही में कुछ आंदोलन भी हुए, लेकिन इनका मकसद भी राजनीति ही निलका। ऐसे में मन ये सोचने पर मजबूर हो जाता है कि, क्या 121 करोड़ की आबादी में कोई भी भारत पुत्र नहीं है, जो कि देश के लिए कुछ करने की मंशा जाहिर सके, और इसे पूरा भी करे। देश आज जिस दो राहे पर खड़ा है वहां से समाधान निकलना मुश्किल लग रहा है, अब समुद्र मंथन की तरह देश मंथन की जरूरत महसूस हो रही है, जिससे की देश से पाप निकल जाए और यहां सिर्फ पुन्य का ही बोल बाला हो। तो क्या आज इस युग में समुद्र मंथन की कल्पना वास्तविकता में बदल पाएगी, क्या हमारा देश घोटालों और करप्शन से आगे निकल कर विकास की नई राह को छू पाएगा?

रविवार, 12 अगस्त 2012

अन्ना आंदोलन बना IPL !


अन्ना आंदोलन बना IPL !
अन्ना हजारे और उनकी टीम ने जब भ्रष्टाचार के खिलाफ और जनलोकपाल के लिए जंग की शुरूआत की थी तो लग रहा था कि ये एक काफी संगठित टीम है, जो देश से भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने में अहम भूमिका निभाएगी, और इसी उम्मीद से देश के हर कोने से अन्ना हजारे और उनकी टीम को भरपूर समर्थन मिला, इतना समर्थन की अन्ना को इसकी उम्मीद भी ना थी। लेकिन टीम भंग होने भर की देरी थी और सारे विवाद खुल कर सामने आ गए। अन्ना जो कभी पार्टी बनाने के पक्ष में नहीं थे, कहा गया कि उन्होंने अपने सहयोगियों के दबाव में आकर पार्टी बनाने का फैसला लिया था। खबरें यहां तक आई कि अन्ना को अपना संदेश सहयोगियों तक पहुंचाने के लिए गांधी जी के भाषण का सहारा लेना पड़ा, यानी इससे ये साफ हो जाता है कि अन्ना और उनके सहयोगियों के बीच की दूरी बढ़ चुकी थी। अन्ना तो जनलोकपाल की जंग के सेनापति थे लेकिन उनकेनिर्देशों को नज़रअंदाज़ करते आ रहे थे। फिर अन्ना के दत्तक पुत्र माने जाने वाले अरविंद केजरीवाल ने ट्वीट कर पार्टी बनाने का सारा आरोप अन्ना पर मढ़ दिया। केजरीवाल ने कहा कि पार्टी बनाने का फैसला खुद अन्ना ने लिया था, और ये फैसला किसी के दबाव में नहीं लिया गया। इसके साथ केजरीवाल की दो लाइनें और थी वो ये कि राजनिति में उतरना ही आखिरी विकल्प है और उन्हें बदनाम करने के लिए साजिश रची जा रही है। हालांकि केजरीवाल ने ये नहीं कहा कि आखिर ये साजिश कौन रच रहा है। केजरीवाल के बयान से साफ है कि अन्ना के सहयोगी अन्ना के कंधे पर बंदूक रख कर निशाना बनाने में लगे हुए हैं। अब तक जो टीम एक थी वो बंट गई। अन्ना की कप्तानी में खेलने वाले खिलाड़ी आज अन्ना के सामने खड़े हैं। ये कहना गलत ना होगा कि अब अन्ना टीम अन्ना Vs  अरविंद केजरीवाल हो गई है। भले ही टीम के दूसरे सदस्य कह रहे हों कि उनके बीच कोई मतभेद नहीं है। लेकिन किरण बेदी का ये बयान की अन्ना ने दो सुझाव दिए थे, जिसमें से एक सुझाव राजनीति में आना भी था। तो बड़ा सवाल ये है कि अन्ना के दूसरे सुझाव पर विचार क्यों नहीं किया गया, राजनीति और राजनेताओं का विरोध करने वाली ये टीम चुनाव लड़ने को क्यों तैयार हो गई? और इन सबके बीच वो हैरत में है जो अन्ना आंदोलन के समर्थक थे, उन्हें समझ में नहीं आ रहा कि वो किस ओर जाएं, स्टेडियम में मैच तो खेला जा रहा है, लेकिन वो समझ नहीं पा रहे कि समर्थन किसका करे। क्योंकि उनके सामन एक ही आंदोलन की दो टीमें है, ठीक वैसे ही जैसे IPL में एक ही टीम के खिलाड़ी कई टीम में बंट जाते हैं, और प्रशंसक ये सोंचते रहते हैं कि वो खिलाड़ी को सपोर्ट करें या फिर टीम को। और ये सब ऐसे वक्त में हो रहा है जब रामलीला मैदान में योग गुरु स्वामी रामदेव मोर्चा संभाले हुए हैं। ऐसे में सवाल ये भी खड़ा हो रहा है कि कहीं ये सब रामदेव के आंदोलन की वजह से तो नहीं हो रहा, क्योंकि जिस  तरह से अन्ना आंदोलन के फेल हो जाने के बाद रामदेव ने लोकपाल का मुद्दा हाइजैक किया है वो भी अन्ना और उनके सहयोगियों के लिए चिंता का विषय हो सकता है। ठीक ऐसा ही IPL में भी होता है कि जब आपकी टीम का कोई घातक खिलाड़ी आपके ही खिलाफ खेल रहा हो तो आप भी हैरत में पड़ जाएंगे। अभी तो सिर्फ अन्ना और अरविंद का मतभेद सामने आया है, और पता नहीं आगे क्या क्या होगा? अन्ना के पुराने सहयोगी इस लड़ाई में पहले ही अन्ना का साथ छोड़ चुके है,और उन लोगों ने भी सारे आरोप अरविंद केजरीवाल पर ही मढ़ा है, यानी पहले से बंटी हुई टीम अब और बंटती जा रही। अब देखना ये होगा कि अन्ना इस पर सफाई देते हैं या फिर केजरीवाल को कदम पीछे खींचना पड़ता है।जतंर-मंतर पर जब अन्ना पहली बार जनलोकपाल के लिए अनशन पर बैठे तो उन्हें देश की साठ फीसदी से ज्यादा आबादी जानती भी नहीं थी, अन्ना तो महाराष्ट्र में अपने आंदोलनों के लिए काफी लोकप्रिय रहे हैं, और वो कई बार महाराष्ट्र सरकार की कुर्सी भी हिला चुके हैं। लेकिन अन्ना को राष्ट्रीय नक्शे पर ला कर खड़ा किया जंतर-मंतर ने। जंतर-मंतर से अन्ना के साथ तो कारवां जुड़ा वो बढ़ता चला गया और अन्ना हर एक गांव, हर एक शहर और हर एक घर में लोकप्रिय हो गए। ये कारवां रामलीला मैदान पर साथ गया और फिर जंतर-मंतर पर आकर आखिरी दिन टूट गया। अन्ना के सामने अब बड़ा सवाल ये भी है कि वो अपने इस कारवां को कैसे बचाएंगे। क्योंकि यही करवां अनशन स्थलों पर हाथ में तिरंगा लिए अन्ना की अगुवाई में अन्ना के लिए दिन-रात खड़ा था, और अन्ना भी ये कह कर उनका जोश बढ़ाते थे कि लोगों की भीड़ से उन्हें ऊर्जा मिल रही है। जीने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है, और अन्ना ने जो बीड़ा उठाया है उसे पूरा करने के लिए इस ऊर्जा की जरूरत तो होगी ही

शनिवार, 11 अगस्त 2012

प्रभाकर प्वाइंट: अच्छा है हॉकी राष्ट्रीय खेल नहीं...

प्रभाकर प्वाइंट: अच्छा है हॉकी राष्ट्रीय खेल नहीं...: लंदन ओलंपिक में जिस तरह से भारतीय दल प्रदर्शन कर रहा है, और हॉकी की जो हालत हुई है, उससे तो अब इस बात पर गर्व होने लगा है कि भारत का राष्ट्र...

अच्छा है हॉकी राष्ट्रीय खेल नहीं...

लंदन ओलंपिक में जिस तरह से भारतीय दल प्रदर्शन कर रहा है, और हॉकी की जो हालत हुई है, उससे तो अब इस बात पर गर्व होने लगा है कि भारत का राष्ट्रीय खेल हॉकी नहीं है, किसी जमाने में हॉकी की हमारी तूती बोलती है, और खिलाड़ियों की स्टिक के कमाल की वजह से हॉकी को राष्ट्रीय खेल कहा जाने लगा था..लेकिन अब सरकार ने खुलासा कर दिया है कि हॉकी राष्ट्रीय खेल नहीं है, पहले ये जान कर बहुत ही धक्का लगा था..लेकिन लंदन में जिस तरह से खिलाड़ियों से अपने जौहर का कमाल दिखाया है, उससे तो अब इस बात की खुशी हो रही है, औऱ इस बात से भी संतोष है कि हमारा कोई राष्ट्रीय खेल है ही नहीं, तो खेलों में हम मेडल की उम्मीद क्यों करे.