घोटालों पर सियासत, जिम्मेदार कौन?
देश में आज कल हर जगह सिर्फ घोटालों की चर्चा हो रही है, और केंद्र की यूपीए सरकार कुछ महीनों बाद ही एक नए घोटाले से घिर जाती है। अगर हाल फिलहाल की बात करें तो इस सरकार ने घोटालों की एक लंबी पारी खेली है, जिसमें मनरेगा घोटाला, कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला, टू-जी स्पकेट्रम घोटाला और अब सामने आया है कोल ब्लॉक आवंटन का घोटाला, ये उन घोटालों की लिस्ट है जो पिछले कुछ समय से सरकार के लिए सिरदर्द और विपक्ष के लिए राजनीति का अखाड़ा बनी हुई है । इन सभी घोटालों का खुलासा किया है संवैधानिक संस्था सीएजी ने। सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में सरकार के तमाम प्रोजेक्ट्स की पोल खोल कर रख दी है।
कैग ने जब से कोयला घोटाले की पोल खोली है, तब ये संस्था सीधे तौर पर सरकार के निशाने पर आ गई है, सरकार का साफ-साफ कहना है कि इस संस्था की रिपोर्ट में कोई पारदर्शिता है ही नहीं, और कांग्रेस पार्टी की तरफ से तो यहां तक बयान आया कि सीएजी को एक्स्ट्रा जीरो लगाने की आदत पड़ गई है। ऐसा नहीं है कि कैग ने घोटालों पर पहली बार रिपोर्ट पेश की हो, और ऐसा भी बिल्कुल नहीं है कि अपने राज खुलने पर ये संवैधानिक संस्था पहली बार सरकार के निशाने पर हो। ऐसे में सवाल ये है कि जब सरकार को कैग की रिपोर्ट खारिज ही करनी है, और इस पर सवाल ही खड़े करने हैं तो इस संवैधानिक संस्था की जरूरत ही क्या है? और इस संस्था पर लाखों रुपए खर्च क्यों किए जा रहे हैं?
ऐसा नहीं है कि इन घोटालों के लिए सीधे तौर पर वर्तमान की केंद्र सरकार ही जिम्मेदार है, इसके पहले की सराकरें भी इसमें बराबर की भागीदार रही हैं। जब कोई भी घोटाला होता है तो सरकार कहती है कि उसने पहले की सरकार ने जो नियम बनाए थे उसी का पालन किया है, जबकि वो पार्टी ऐसा मानने से इनकार कर देती है। टू-जी स्पेक्ट्रम और कोयला घोटाले में भी सरकार की तरफ से यही दलील पेश की गई, और कहा गया कि उन्होंने एनडीए के कार्यकाल में बने नियमों के मुताबिक ही काम किया है। जबकि एनडीए इन आरोपों को एक सिरे से खारिज करता रहा है।
कोयला घोटाले पर कैग रिपोर्ट आने के बाद से संसद ठप है, लेकिन इस मुद्दे पर सदन के बाहर बयानबाज़ी जारी है, विपक्ष का इस पर सियासत करने में जुटा है, तो सरकार के सामने सवाल अपनी साख बचाने की है। विपक्ष के तेवर से साफ है कि वो इसे चुनावी मुद्दा जरूर बनाएगा। इस साल के अंत में गुजरात विधानसभा चुनाव होने हैं, फिर हिमाचल और सबसे बड़ा समर तो 2014 के लोकसभा चुनावों में होगा, ऐसे में इस पर सियासत खूब हो रही है, जाहिर है कि फिलहाल विपक्ष के पास कोई बड़ा मुद्दा नहीं है, और वो सीएजी रिपोर्ट को ही अपनी सियासत का ट्रैक बना कर दौड़ लगा रहा है। लेकिन इन सबके बीच में समय संसद और देश का बर्बाद हो रहा है, आखिर इसकी तरफ किसी भी पार्टी का ध्यान क्यों नहीं जा रहा है? जो पार्टियां घोटालों पर सरकार को घेरने में लगी रहती है, वो संसद ना चलने का विरोध क्यों नहीं करतीं ? हाल ही में राज्यसभा में नेता विपक्ष अरुण जेटली का बयान आया था कि कभी-कभी संसद ना चलने देना भी अच्छा होता है। माना की सरकार पर दबाव बनाने के लिए विपक्ष का हंगमा जरूरी है, लेकिन जब सरकार सदन में चर्चा को तैयार है तो, उसे एक मौका तो देना ही चाहिए, नहीं तो एक घोटाला जो की हो चुका है, देश को अरबों रुपए का चूना लग चुका है, और अब सत्ता पक्ष और विपक्ष अपनी सियायसत को चमकाने के लिए संसद का कीमती वक्त बर्बाद कर रहे हैं, वो भी उस संसद में जहां देश की भावी योजनाएं बनती है।
(प्रभाकर चंचल)