रविवार, 26 अगस्त 2012

घोटालों पर सियासत, जिम्मेदार कौन?


घोटालों पर सियासत, जिम्मेदार कौन?
देश में आज कल हर जगह सिर्फ घोटालों की चर्चा हो रही है, और केंद्र की यूपीए सरकार कुछ महीनों बाद ही एक नए घोटाले से घिर जाती है। अगर हाल फिलहाल की बात करें तो इस सरकार ने घोटालों की एक लंबी पारी खेली है, जिसमें मनरेगा घोटाला, कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला, टू-जी स्पकेट्रम घोटाला और अब सामने आया है कोल ब्लॉक आवंटन का घोटाला, ये उन घोटालों की लिस्ट है जो पिछले कुछ समय से सरकार के लिए सिरदर्द और विपक्ष के लिए राजनीति का अखाड़ा बनी हुई है । इन सभी घोटालों का खुलासा किया है संवैधानिक संस्था सीएजी ने। सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में सरकार के तमाम प्रोजेक्ट्स की पोल खोल कर रख दी है।
 कैग ने जब से कोयला घोटाले की पोल खोली है, तब ये संस्था सीधे तौर पर सरकार के निशाने पर आ गई है, सरकार का साफ-साफ कहना है कि इस संस्था की रिपोर्ट में कोई पारदर्शिता है ही नहीं, और कांग्रेस पार्टी की तरफ से तो यहां तक बयान आया कि सीएजी को एक्स्ट्रा जीरो लगाने की आदत पड़ गई है। ऐसा नहीं है कि कैग ने घोटालों पर पहली बार रिपोर्ट पेश की हो, और ऐसा भी बिल्कुल नहीं है कि अपने राज खुलने पर ये संवैधानिक संस्था पहली बार सरकार के निशाने पर हो। ऐसे में सवाल ये है कि जब सरकार को कैग की रिपोर्ट खारिज ही करनी है, और इस पर सवाल ही खड़े करने हैं तो इस संवैधानिक संस्था की जरूरत ही क्या है? और इस संस्था पर लाखों रुपए खर्च क्यों किए जा रहे हैं?
ऐसा नहीं है कि इन घोटालों के लिए सीधे तौर पर वर्तमान की केंद्र सरकार ही जिम्मेदार है, इसके पहले की सराकरें भी इसमें बराबर की भागीदार रही हैं। जब कोई भी घोटाला होता है तो सरकार कहती है कि उसने पहले की सरकार ने जो नियम बनाए थे उसी का पालन किया है, जबकि वो पार्टी ऐसा मानने से इनकार कर देती है। टू-जी स्पेक्ट्रम और कोयला घोटाले में भी सरकार की तरफ से यही दलील पेश की गई, और कहा गया कि उन्होंने एनडीए के कार्यकाल में बने नियमों के मुताबिक ही काम किया है। जबकि एनडीए इन आरोपों को एक सिरे से खारिज करता रहा है।
कोयला घोटाले पर कैग रिपोर्ट आने के बाद से संसद ठप है, लेकिन इस मुद्दे पर सदन के बाहर बयानबाज़ी जारी है, विपक्ष का इस पर सियासत करने में जुटा है, तो सरकार के सामने सवाल अपनी साख बचाने की है। विपक्ष के तेवर से साफ है कि वो इसे चुनावी मुद्दा जरूर बनाएगा। इस साल के अंत में गुजरात विधानसभा चुनाव होने हैं, फिर हिमाचल और सबसे बड़ा समर तो 2014 के लोकसभा चुनावों में होगा, ऐसे में इस पर सियासत खूब हो रही है, जाहिर है कि फिलहाल विपक्ष के पास कोई बड़ा मुद्दा नहीं है, और वो सीएजी रिपोर्ट को ही अपनी सियासत का ट्रैक बना कर दौड़ लगा रहा है। लेकिन इन सबके बीच में समय संसद और देश का बर्बाद हो रहा है, आखिर इसकी तरफ किसी भी पार्टी का ध्यान क्यों नहीं जा रहा है? जो पार्टियां घोटालों पर सरकार को घेरने में लगी रहती है, वो संसद ना चलने का विरोध क्यों नहीं करतीं ? हाल ही में राज्यसभा में नेता विपक्ष अरुण जेटली का बयान आया था कि कभी-कभी संसद ना चलने देना भी अच्छा होता है। माना की सरकार पर दबाव बनाने के लिए विपक्ष का हंगमा जरूरी है, लेकिन जब सरकार सदन में चर्चा को तैयार है तो, उसे एक मौका तो देना ही चाहिए, नहीं तो एक घोटाला जो की हो चुका है, देश को अरबों रुपए का चूना लग चुका है, और अब सत्ता पक्ष और विपक्ष अपनी सियायसत को चमकाने के लिए संसद का कीमती वक्त बर्बाद कर रहे हैं, वो भी उस संसद में जहां देश की भावी योजनाएं बनती है।       
(प्रभाकर चंचल)






बुधवार, 15 अगस्त 2012

ये कैसी आज़ादी


आजाद भारत 65 साल का हो गया है, और इसका जश्न भी खूब धूम-धाम से मानया जा रहा है। हर कोई कह रहा है कि हमें अपनी आजादी पर फ़क्र है और हम इसे किसी भी कीमत पर खोने नहीं देंगे। आखिर हमें स्कूल से यही तो सिखाया गया है कि हमारी आजादी हमें बेहद प्यारी है, और जान से भी ज्यादा प्यारी है, हमने महापुरुषों के संदेश में भी यही पढ़ा है।
लेकिन सवाल ये है कि क्या आज 65 साल की आजादी सचमुच में हमें अपने स्वाधीनता पर फक्र करने का अवसर देती है? क्या हमारी सरकार से हमें वो सभी जरूरी चीजें मिल रही हैं, जिसकी हमें वास्तव मे दरकार है? क्या हमें इस आज़ाद देश में आज़ादी से जीने के अवसर मिल रहे हैं है? इतना कुछ सोचने बाद जवाब होगा नहीं, क्योंकि हमें अपने इस आजाद देश में वो सभी जरूरी चीजें नहीं मिल रही, जिसकी हमें आवश्यक्ता है। आज कस्बा गांव की ओर पलायन कर रहा है, गांव शहर की ओर, शहर महानगर की और महानगर विदेशों की ओर पलायन कर रहा है, ये सभी अपनी रोजमर्रा की जरूरतें और पेट भरने के लिए ऐसा करने को मजबूर हैं, वो दस फीसदी लोग ही होंगे जो अपने व्यापार को बढ़ाने और शौक के लिए विदेशों में सैर करने जाते होंगे। अगर ये सच्चाई हमारे सामने है तो हम अपनी आजादी पर गर्व कैसे कर सकते हैं? हमारी सरकार को ये पता है कि उसकी हर प्लानिंग धीरे-धीरे फेल हो रही है, और फिर भी विद्रोह करने पर सरकार कहती है उसे लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता हासिल है।
हमारे देश की आधी से ज्यादा आबादी भूखे पेट रात गुजारने को मजबूर है, लाखों लोग तो आधा पेट ही भोजन कर पाते हैं। इस आजादी पे तरस उस वक्त आती है जब एक मासूम अपना और अपने परिवार का पेट भरने के लिए रेड लाइट पर तिरंगा बेचता नज़र आता है, एक मां अपने गोद में बच्चा और एक हाथ में तिरंगा लिए लोगों से ये गुहार करती है कि वो उसका तिरंगा खरीद ले, जब बच्चे रेडलाइट पर अपने करतब दिखा कर लोगों से पेट भरने के लिए पैसे मांगते हैं। इतना ही नहीं, आजादी पर चिढ़ उस वक्त होती है जब एक सामान बेचने वाली युवती लोगों से कुछ सामान खरीदने की गुहार करती है औऱ मनचले उसे छेड़ते हैं और उसकी तरफ वासना भरी नज़रों से देखते है।
जब हमारे देश में रहने वालों की यही मानसिकता है तो आप सोचिए कि आखिर ये आजादी हमारे लिए किस काम की है। आजादी के योद्धाओं ने तो देश को अंग्रेजों से मुक्त कराने के लिए अपने जान की बाजी लगा दी, लेकिन लोगों और सरकार की इस कुंठित मानसिकता से हमें कौन आजादी दिलाएगा? और कब हमारी आजादी सही मयाने में पूरी हो पाएगी, और कब हमारे देश में समाज का हर तबका चैन की सांस ले सकेगा? आखिर हमें ये पूर्ण आजादी कब मिलेगी?
हमारे देश में सरकार और नेताओं को वोट बैंक की राजनीति करने से फुरसत नहीं है, बाकी बचा समय वो दौरों में निकाल देते हैं, जनता अपने स्वार्थ के पीछे भाग रही है..तो ऐसे में इस देश की सुध लेने वाला कोई नहीं है, देश हित के लिए हाल ही में कुछ आंदोलन भी हुए, लेकिन इनका मकसद भी राजनीति ही निलका। ऐसे में मन ये सोचने पर मजबूर हो जाता है कि, क्या 121 करोड़ की आबादी में कोई भी भारत पुत्र नहीं है, जो कि देश के लिए कुछ करने की मंशा जाहिर सके, और इसे पूरा भी करे। देश आज जिस दो राहे पर खड़ा है वहां से समाधान निकलना मुश्किल लग रहा है, अब समुद्र मंथन की तरह देश मंथन की जरूरत महसूस हो रही है, जिससे की देश से पाप निकल जाए और यहां सिर्फ पुन्य का ही बोल बाला हो। तो क्या आज इस युग में समुद्र मंथन की कल्पना वास्तविकता में बदल पाएगी, क्या हमारा देश घोटालों और करप्शन से आगे निकल कर विकास की नई राह को छू पाएगा?

रविवार, 12 अगस्त 2012

अन्ना आंदोलन बना IPL !


अन्ना आंदोलन बना IPL !
अन्ना हजारे और उनकी टीम ने जब भ्रष्टाचार के खिलाफ और जनलोकपाल के लिए जंग की शुरूआत की थी तो लग रहा था कि ये एक काफी संगठित टीम है, जो देश से भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने में अहम भूमिका निभाएगी, और इसी उम्मीद से देश के हर कोने से अन्ना हजारे और उनकी टीम को भरपूर समर्थन मिला, इतना समर्थन की अन्ना को इसकी उम्मीद भी ना थी। लेकिन टीम भंग होने भर की देरी थी और सारे विवाद खुल कर सामने आ गए। अन्ना जो कभी पार्टी बनाने के पक्ष में नहीं थे, कहा गया कि उन्होंने अपने सहयोगियों के दबाव में आकर पार्टी बनाने का फैसला लिया था। खबरें यहां तक आई कि अन्ना को अपना संदेश सहयोगियों तक पहुंचाने के लिए गांधी जी के भाषण का सहारा लेना पड़ा, यानी इससे ये साफ हो जाता है कि अन्ना और उनके सहयोगियों के बीच की दूरी बढ़ चुकी थी। अन्ना तो जनलोकपाल की जंग के सेनापति थे लेकिन उनकेनिर्देशों को नज़रअंदाज़ करते आ रहे थे। फिर अन्ना के दत्तक पुत्र माने जाने वाले अरविंद केजरीवाल ने ट्वीट कर पार्टी बनाने का सारा आरोप अन्ना पर मढ़ दिया। केजरीवाल ने कहा कि पार्टी बनाने का फैसला खुद अन्ना ने लिया था, और ये फैसला किसी के दबाव में नहीं लिया गया। इसके साथ केजरीवाल की दो लाइनें और थी वो ये कि राजनिति में उतरना ही आखिरी विकल्प है और उन्हें बदनाम करने के लिए साजिश रची जा रही है। हालांकि केजरीवाल ने ये नहीं कहा कि आखिर ये साजिश कौन रच रहा है। केजरीवाल के बयान से साफ है कि अन्ना के सहयोगी अन्ना के कंधे पर बंदूक रख कर निशाना बनाने में लगे हुए हैं। अब तक जो टीम एक थी वो बंट गई। अन्ना की कप्तानी में खेलने वाले खिलाड़ी आज अन्ना के सामने खड़े हैं। ये कहना गलत ना होगा कि अब अन्ना टीम अन्ना Vs  अरविंद केजरीवाल हो गई है। भले ही टीम के दूसरे सदस्य कह रहे हों कि उनके बीच कोई मतभेद नहीं है। लेकिन किरण बेदी का ये बयान की अन्ना ने दो सुझाव दिए थे, जिसमें से एक सुझाव राजनीति में आना भी था। तो बड़ा सवाल ये है कि अन्ना के दूसरे सुझाव पर विचार क्यों नहीं किया गया, राजनीति और राजनेताओं का विरोध करने वाली ये टीम चुनाव लड़ने को क्यों तैयार हो गई? और इन सबके बीच वो हैरत में है जो अन्ना आंदोलन के समर्थक थे, उन्हें समझ में नहीं आ रहा कि वो किस ओर जाएं, स्टेडियम में मैच तो खेला जा रहा है, लेकिन वो समझ नहीं पा रहे कि समर्थन किसका करे। क्योंकि उनके सामन एक ही आंदोलन की दो टीमें है, ठीक वैसे ही जैसे IPL में एक ही टीम के खिलाड़ी कई टीम में बंट जाते हैं, और प्रशंसक ये सोंचते रहते हैं कि वो खिलाड़ी को सपोर्ट करें या फिर टीम को। और ये सब ऐसे वक्त में हो रहा है जब रामलीला मैदान में योग गुरु स्वामी रामदेव मोर्चा संभाले हुए हैं। ऐसे में सवाल ये भी खड़ा हो रहा है कि कहीं ये सब रामदेव के आंदोलन की वजह से तो नहीं हो रहा, क्योंकि जिस  तरह से अन्ना आंदोलन के फेल हो जाने के बाद रामदेव ने लोकपाल का मुद्दा हाइजैक किया है वो भी अन्ना और उनके सहयोगियों के लिए चिंता का विषय हो सकता है। ठीक ऐसा ही IPL में भी होता है कि जब आपकी टीम का कोई घातक खिलाड़ी आपके ही खिलाफ खेल रहा हो तो आप भी हैरत में पड़ जाएंगे। अभी तो सिर्फ अन्ना और अरविंद का मतभेद सामने आया है, और पता नहीं आगे क्या क्या होगा? अन्ना के पुराने सहयोगी इस लड़ाई में पहले ही अन्ना का साथ छोड़ चुके है,और उन लोगों ने भी सारे आरोप अरविंद केजरीवाल पर ही मढ़ा है, यानी पहले से बंटी हुई टीम अब और बंटती जा रही। अब देखना ये होगा कि अन्ना इस पर सफाई देते हैं या फिर केजरीवाल को कदम पीछे खींचना पड़ता है।जतंर-मंतर पर जब अन्ना पहली बार जनलोकपाल के लिए अनशन पर बैठे तो उन्हें देश की साठ फीसदी से ज्यादा आबादी जानती भी नहीं थी, अन्ना तो महाराष्ट्र में अपने आंदोलनों के लिए काफी लोकप्रिय रहे हैं, और वो कई बार महाराष्ट्र सरकार की कुर्सी भी हिला चुके हैं। लेकिन अन्ना को राष्ट्रीय नक्शे पर ला कर खड़ा किया जंतर-मंतर ने। जंतर-मंतर से अन्ना के साथ तो कारवां जुड़ा वो बढ़ता चला गया और अन्ना हर एक गांव, हर एक शहर और हर एक घर में लोकप्रिय हो गए। ये कारवां रामलीला मैदान पर साथ गया और फिर जंतर-मंतर पर आकर आखिरी दिन टूट गया। अन्ना के सामने अब बड़ा सवाल ये भी है कि वो अपने इस कारवां को कैसे बचाएंगे। क्योंकि यही करवां अनशन स्थलों पर हाथ में तिरंगा लिए अन्ना की अगुवाई में अन्ना के लिए दिन-रात खड़ा था, और अन्ना भी ये कह कर उनका जोश बढ़ाते थे कि लोगों की भीड़ से उन्हें ऊर्जा मिल रही है। जीने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है, और अन्ना ने जो बीड़ा उठाया है उसे पूरा करने के लिए इस ऊर्जा की जरूरत तो होगी ही

शनिवार, 11 अगस्त 2012

प्रभाकर प्वाइंट: अच्छा है हॉकी राष्ट्रीय खेल नहीं...

प्रभाकर प्वाइंट: अच्छा है हॉकी राष्ट्रीय खेल नहीं...: लंदन ओलंपिक में जिस तरह से भारतीय दल प्रदर्शन कर रहा है, और हॉकी की जो हालत हुई है, उससे तो अब इस बात पर गर्व होने लगा है कि भारत का राष्ट्र...

अच्छा है हॉकी राष्ट्रीय खेल नहीं...

लंदन ओलंपिक में जिस तरह से भारतीय दल प्रदर्शन कर रहा है, और हॉकी की जो हालत हुई है, उससे तो अब इस बात पर गर्व होने लगा है कि भारत का राष्ट्रीय खेल हॉकी नहीं है, किसी जमाने में हॉकी की हमारी तूती बोलती है, और खिलाड़ियों की स्टिक के कमाल की वजह से हॉकी को राष्ट्रीय खेल कहा जाने लगा था..लेकिन अब सरकार ने खुलासा कर दिया है कि हॉकी राष्ट्रीय खेल नहीं है, पहले ये जान कर बहुत ही धक्का लगा था..लेकिन लंदन में जिस तरह से खिलाड़ियों से अपने जौहर का कमाल दिखाया है, उससे तो अब इस बात की खुशी हो रही है, औऱ इस बात से भी संतोष है कि हमारा कोई राष्ट्रीय खेल है ही नहीं, तो खेलों में हम मेडल की उम्मीद क्यों करे.